Wednesday, 11 May 2016

ब्रह्म और परब्रह्म का रहस्य

भ्रम में आप पड़े हुए है , इसपर हम धर्मालय के वेबसाइट के “धर्म का ज्ञान क्षेत्र” प्रभाग में पहले भी प्रकाश डाल चुके है। ब्रह्म और परब्रह्म , इन दोनो में बड़ा अन्तर है । ब्रह्म की उत्पत्ति होती है और परब्रह्म के कारण उसी में होती है । जैसा की मैंने पहले भी कहा है कि इस उत्पत्ति में बनता कुछ भी नहीं है और न कुछ उत्पन्न होता है । उत्पत्ति हमारी अनुभूतियों की देन है। वास्तव में इसमें परब्रह्म की धाराएं ही होती है। इसलिए तत्व रूप में बहुत सारे ऋषियों ने इन दोनों को एक ही माना है। और यह कहा है कि ब्रह्म फिर परब्रह्म में विलीन हो जाता है। परब्रह्म आनादी , अनंत , अखंड , निर्गुण, सर्व तेजोमय , सर्व चैतन्य , निराकार है। लेकिन प्रत्येक आकृति, गुण , चेतना, आदि की उत्पत्ति इसी से होती है।इसकी पहली उत्पत्ति ब्रह्म के रूप में उत्पन्न होती है। इस उत्पत्ति को बहुत से ऋषियों ने उत्पत्ति माना ही नहीं है । इसे परब्रह्म का ही स्वरुप माना है। परन्तु भौतिकता की उत्पत्ति यही से होती है । यदि हम सापेक्षता के सिद्धांत को भूल जाए , तब तो हम और ये प्रकृति दोनों अजन्मा और अनादी है। क्योंकि जन्म केवल रूप का होता है उस तत्व का नहीं जिससे वह रूप उत्पन्न होता है। संस्कृत के विद्वानों ने अपनी अपनी आस्थाओं के अनुरूप व्याख्याएं की है।उन सब को एक साथ मिलाकर ही उसके वास्तविक अर्थ को जाना जा सकता है।
ब्रह्म-परब्रह्म, परमात्मा-ईश्वर ,शिव-सदाशिव, इनमें अंतर है – इस अंतर को समझने के बाद ही सनातन धर्म का वास्तविक विज्ञान समझ में आ सकता है। ईश्वर का आधिपत्य ब्रह्माण्ड तक होता है और ब्रह्माण्ड के बाहर भी एक सीमा तक , उसके बाद उसी परमतत्व का अस्तित्त्व होता है । यह दूसरी बात है की चाहे यह ब्रह्माण्ड जितनी बार उत्पन्न हो , ईश्वर के स्वरुप और उसकी संरचना और उसकी गुणों आदि में कोई अन्तर नहीं रहता। चक्रवात हवा में उत्पन्न होता है , उसमें हवा के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। लेकिन चक्रवात हवा नहीं है वह हवा से बनने वाली एक धारा है। इस अंतर को तो समझना होगा। ऋग्वेद का पुरुषसूक्तम इसी ईश्वर का वर्णन है।और यह एक संरचना का वर्णन है। प्रकृति में संचरण करने वाली इस संरचना को ही ईश्वर कहा जाता है। और जो इसके केंद्र में बैठा है वह पुराणों का वामनावतार है। इसका एक पग नेगेटिव दूसरा पॉजिटिव पोल पर और तीसरा इसके शीर्ष पर होता है । इसपर हम पहले भी प्रकाश डाल चुके हैं “गायत्री प्रकरण” देखे। मुश्किल यह है कि बहुत से संस्कृत के विद्वानों ने भी अपनी-अपनी समझ से घालमेल पैदा कर दिया है।परमात्मा , विश्वात्मा , आत्मा, जीवात्मा, प्रेतात्मा इन सबमें अंतर है । परन्तु इन लोगों ने सब को आत्मा के नाम से ही पुकार दिया है। है तो सब आत्मा ही लेकिन स्थान भेद से सब अंतर आ जाता है। जब तक हम इस वर्गीकरण को नहीं करेंगे, कुछ समझना ही मुश्किल हो जाएगा।

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